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भारतीय संस्कृति की एक महान विरासत: प्रयाग महाकुंभ

2025 में उत्तरप्रदेश के प्रयागराज में महाकुंभ मेला आयोजित हो रहा है। भारतवर्ष के 4 तीर्थों में यह मेला आयोजित होता है। इसमें हरिद्वार और प्रयाग का मेला कुंभ मेला कहलाता है और उज्जैन और नासिक का सिंहस्थ। उत्तरप्रदेश सरकार इस विशाल महापर्व के लिए बहुत तैयारियां कर रही है, अनुमान है यहाँ करोड़ों तीर्थयात्रियों का आगमन होगा। सरकार ने प्रशासनिक दृष्टि से प्रयागराज तीर्थ क्षेत्र को कुंभपर्व के दौरान के लिए अस्थायी जिला भी घोषित कर दिया है।

पौराणिक कथा –

कथा आती है कि देव और दानवों ने जब समुद्र-मंथन किया था। तब इसमें से कई रत्नों के साथ अमृत भी निकला था। अमृत को लेकर देवों और दानवों के मध्य संघर्ष होने लगा। अमृत की सुरक्षा के लिए धन्वंतरि अमृत कलश लेकर भागे और उनके पीछे असुर भागे। असुरों द्वारा अमृत की छीनाझपटी में अमृत की चार बूंदें छलक कर इन चार तीर्थों में गिर गईं, तभी से यहाँ मेलों का आयोजन होने लगा। एक तीर्थ पर महाकुंभ पूरे 12 वर्ष बाद आयोजित होता है। मान्यता है सूर्य तब मकर राशि से कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं।

प्रयाग तीर्थ की महत्ता –

प्रयाग वह तीर्थ है जहाँ गंगा-यमुना और लगभग विलुप्त हो चुकी सरस्वती नदी का संगम होता है। भारत में यह सुप्रसिद्ध तीर्थ है, जहाँ हर वर्ष माघ महीने में मेला आयोजित होता है और लोग देवपगा गंगा के पवित्र जल में स्नान करते हैं और कल्पवास करते हैं। पुराणों में इसे तीर्थों का राजा कहा गया है। पदम् पुराण के अनुसार –

प्रयागे माघ पर्यन्त त्रिवेणी संगमे शुभे।

निवासः पुण्यशीलानां कल्पवासो हि कश्यते।।

ग्रंथों में प्रयाग तीर्थ को तीर्थों का राजा कहा गया है। यहाँ आस-पास सिद्ध-मुनियों और तपस्वियों के आश्रम थे। रामायण के अनुसार भगवान राम ने यहाँ तीर्थराज प्रयाग में अपने पितरों का तर्पण इत्यादि किया था और निकट ही भारद्वाज आश्रम भी गए थे। महाभारत के अनुसार महर्षि मार्कण्डेय ने युधिष्ठिर को प्रयाग तीर्थ के माहात्म्य की जानकारी दी थी। इस पुण्यतीर्थ को मोक्ष देने वाला कहा गया है। इसीलिए पहले के समय में लोग अपना वानप्रस्थ बिताने यहाँ आते थे। भारतीय इतिहास के कई राजा-महाराजाओं ने भी यहीं अपना निर्वाण प्राप्त किया। इसकी पुष्टि अभिलेख और ग्रंथों से होती है। खजुराहो के एक शिलालेख के अनुसार, सौ से अधिक शरद ऋतुओं तक जीवित रहने के बाद, जेजाकभुक्ति के चंदेल शासक धंग ने गंगा और यमुना के जल में अपना शरीर त्याग कर मोक्ष प्राप्त किया। इसी तरह एक अभिलेख के अनुसार चेदि के कलचुरी शासक गांगेयदेव ने भी प्रयाग में निर्वाण प्राप्त किया था। उसकी मृत्यु के बाद उसकी सौ स्त्रियाँ सती हो गईं थीं। सती प्रथा का अब तक का यह सबसे बड़ा उदाहरण है जब एक ही व्यक्ति के साथ इतनी ज्यादा स्त्रियाँ सती हुईं। माधव ऊरव्य द्वारा रचित वीरभानुदय-काव्य नाम के संस्कृत ग्रंथ से भी पता चलता है गहोरा (रीवा) के बघेला शासकों द्वारा प्रयाग के अलर्क(अरैल) घाट में अंतिम समय में निवास करते थे।

प्रयाग क्षेत्र का संक्षिप्त इतिहास –

ऐतिहासिक रूप से वत्स महाजनपद का केंद्र यही क्षेत्र था, जिसकी राजधानी कौशांबी या कोसम हुआ करती। यहाँ का सुप्रसिद्ध राजा उदयन, जो वीणावादन में निपुण था, वह कई संस्कृत नाटक और कथाओं का नायक भी है। इसके बाद मौर्य, शुंग, गुप्त, वर्धन वंश ने यहाँ शासन किया। सम्राट हर्ष और प्रयाग में आयोजन का जिक्र ह्वेनसांग ने विस्तार से किया है। राजपूतकाल में प्रतिहार, चंदेल, कलचुरि और गाहड़वाल वंश ने यहाँ शासन किया। फिर यह क्षेत्र दिल्ली सुल्तानों के अधीन हो गया। बाद में अफगान और मुग़लों ने यहाँ शासन किया। इलाहाबाद के किले का निर्माण मुग़ल बादशाह अकबर के समय में 1583 में हुआ था। इस किले के निर्माण का प्रमुख उद्देश्य बिहार और बंगाल के विद्रोहों और पूर्वीक्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित करना था। अकबर ने किले का नाम इलाहाबास रखा था, अर्थात जहाँ ईश्वर का वास हो, इसका नामकरण हिंदू तीर्थ प्रयाग के महत्व के कारण ही था। इलाहाबास ही आगे चलकर इलाहाबाद हो गया। अकबर ने कड़ा सूबा की जगह इलाहाबाद को नया सूबा बनाया। अपने पिता से विद्रोह कर शहजादा सलीम यहीं रहता था। बाद में बक्सर के युद्ध के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी और मुग़ल बादशाह शाह आलम के मध्य इलाहाबाद की संधि हुई और यह किला और क्षेत्र अंग्रेजों को प्राप्त हो गया। ब्रिटिशकाल में इस शहर को एक दिन की देश की राजधानी बनने का गौरव भी प्राप्त है। लखनऊ से पहले यह शहर ही यूनाइटेड प्रॉविन्स की भी राजधानी हुआ करता था।

प्रयाग प्रशस्ति –

यह गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त का एक प्रशस्ति लेख है। जिसे उसके दरबारी हरिषेण ने रचा था। यह प्रशस्ति कौशांबी से लाए गए एक अशोक स्तंभ पर अंकित करवाई गई थी। इसी लेख से समुद्रगुप्त की दिग्विजय का पता चलता है। समुद्रगुप्त से पहले अशोक का भी एक लेख इसमें अंकित है। बाद में इसमें जहाँगीर के राज्याभिषेक का विवरण भी खुदवाया गया था।

प्राचीन अक्षयवट का वृक्ष –

इलाहाबाद के किले में स्थित पातालपुरी मंदिर परिसर में स्थित एक विशाल अक्षयवृक्ष या वटवृक्ष भी है, जिसके बारे में यह मान्यता है यह अत्यंत प्राचीन है। जानकार इसकी उम्र लगभग 300 वर्ष पुरानी बताते हैं, कुछ लोग इससे भी प्राचीन बताते हैं। बताया जाता है जो लोग संगम में कूदकर मोक्ष प्राप्त करते थे, वे इसी वटवृक्ष में चढ़कर संगम में छलांग लगाया करते थे। एक चित्रकार हचिंसन ने धंगदेव के निर्वाण प्राप्त करने के समय का काल्पनिक चित्रांकन किया भी है। रामायण की कथा के अनुसार भगवान राम, देवी सीता और लक्ष्मण ने अपने वनवास प्रवास के दौरान प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे विश्राम किया था, कुछ विद्वानों का मत है, यह वही वटवृक्ष है। ह्वेनसांग भी लिखता है, उसने प्रयाग में शाखा वाले वृक्ष के नीचे बहुत सारी हड्डियां इत्यादि देखी थीं। कहते हैं अपने समय मुग़ल बादशाह जहाँगीर इस अक्षयवृक्ष को काटना चाहता था, पर काट नहीं पाया। हालांकि कई लोग मानते है प्राचीन अक्षयवट और पातालपुरी मंदिर किसी और जगह थे, संभवतः क़िले के मध्यभाग में कहीं, लेकिन ब्रिटिशकाल में अंग्रेजों ने किले की संवेदनशीलता को देखकर मंदिर को किले से बाहर स्थापित करवा दिया था। इसीलिए वर्तमान वृक्ष उस प्राचीन वृक्ष की शाखा मात्र है। इसकी पुष्टि 18वीं सदी का एक चित्र भी करता है। जैन धर्म में भी प्रयाग का अत्यंत महत्व है। जैन ग्रंथों के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने यहाँ वटवृक्ष के नीचे तपस्या करके सर्वज्ञता प्राप्त की थी।

कुंभमेले का इतिहास –

पहली बार कुंभ मेला कब आयोजित किया गया, यह तो निश्चित नहीं कहा जा सकता है। लेकिन कुछ विद्वान मानते हैं सम्भवतः इसे कन्नौज के सम्राट महाराज हर्षवर्धन द्वारा प्रारंभ किया गया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग द्वारा दिए गए विवरण से ज्ञात होता है सम्राट हर्ष के समय प्रयाग में बहुत ही विशाल आयोजन किया जाता था। जिसमें सम्राट और सामंत भी भाग लेते थे। पहले भगवान बुद्ध, भगवान शिव और सूर्य की पूजा की जाती थी। और फिर ब्राम्हणों और बौद्ध भिक्षुओं को दान भी दिया जाता था। सम्राट हर्षवर्धन अपना सबकुछ दान कर देते थे। यहाँ बहुत लोग स्नान करते थे और मानते थे की उन्हें पापों से मुक्ति मिलेगी। लेकिन ह्वेनसांग के विवरण के अनुसार यह आयोजन पांच वर्ष में एक बार होता था। और महाकुंभ का आयोजन 12 वर्ष में एक बार होता था।

19वीं शताब्दी से पहले प्रयाग में 12 साल के चक्र से चलने वाले वाले कुंभ मेले का कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता है। मत्स्य पुराण के प्रयाग महात्म्य खंड में माघ महीने में प्रयाग की पवित्रता का वर्णन तो किया गया है, लेकिन इसमें किसी भी “कुंभ मेले” का उल्लेख नहीं है। बंगाल के प्रमुख आध्यात्मिक संत चैतन्य महाप्रभू ने 1514 में प्रयाग की यात्रा की थी और मकर संक्रांति के दिन स्नान भी किया था। जिसका उल्लेख बंगाली भाषा के स्रोत चैतन्य चरितामृत में भी मिलता है कि उन्होंने माघ मेले का दौरा किया था। तुलसीदास द्वारा रचित 16वीं शताब्दी के रामचरितमानस में इलाहाबाद में मेले को वार्षिक बताया गया है, लेकिन इसमें 12 साल के चक्र का कोई संदर्भ नहीं है।

माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥

पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥

निज़ामुद्दीन अहमद की तबक़ात-ए-अकबरी (लगभग 1590 के दशक) में भी मेले को वार्षिक बताया गया है। इसमें कहा गया है कि रबी की फसल के बाद, हिंदू इतनी बड़ी संख्या में त्रिवेणी संगम पर आए कि यह विशाल जंगल और मैदान भी उनके रुकने के लिए पर्याप्त नहीं थे। 16वीं शताब्दी के आइन-ए-अकबरी में भी उल्लेख है कि इलाहाबाद माघ के महीने में विशेष रूप से पवित्र है। खुलासत-उत-तवारीख (लगभग 1695-1699) नाम के फ़ारसी ग्रंथ में केवल हरिद्वार में होने वाले मेले को “कुंभ मेला” कहा गया है। इसमें केवल इलाहाबाद में एक वार्षिक मेले के आयोजन का उल्लेख है। यादगार-ए-बहादुरी (1834 ई.) में भी इसी तरह उल्लेख किया गया है कि इलाहाबाद में मेला हर सर्दियों में माघ के महीने में आयोजित किया जाता है, जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है।

1765 में मुग़ल बादशाह शाह आलम और ईस्ट इंडिया कंपनी के मध्य हुए इलाहाबाद की संधि के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और ओड़िसा के दीवानी अधिकार के साथ-साथ इलाहाबाद का क़िला और प्रयाग के क्षेत्र पर नियंत्रण भी प्राप्त कर लिया। उनके शुरुआती दस्तावेजों में प्रयागराज के वार्षिक माघ मेले के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है, जिसमें प्रशासनिक उद्देश्य से तीर्थयात्रियों से कर एकत्रित किया जाता था। लेकिन इसमें से कोई भी दस्तावेज मेले को “कुंभ” नाम से नहीं पुकारता है, न ही वे हर 12वें वर्ष आयोजित होने वाले मेले के लिए कोई जिक्र करते हैं। इसके विपरीत हरिद्वार में आयोजित होने वाले “कुंभ मेला” नाम के साथ-साथ 12 वर्ष बाद आयोजित होने के कई संदर्भ हैं। प्रयागराज मेले में जाने वाले हिंदू राजाओं और उनके परिवार द्वारा उनसे कर न वसूलने को लेकर उनके आवेदनों के भी कई दस्तावेज हैं और इनके अनुसार भी यह मेले वार्षिक ही होते थे। एशियाटिक सोसाइटी के भोलानाथ चंदर (1869) ने भी इलाहाबाद में “विशेष महान मेले” का उल्लेख वार्षिक रूप से किया है, जो जनवरी माघ माह में आयोजित होता था।

यह बता पाना कठिन है कि महाकुंभ का आयोजन कब से हो रहा है या माघ मेले को ही बड़े धार्मिक स्वरुप में हरिद्वार से प्रभावित होकर कुंभ का नाम दे दिया गया। ब्रिटिश दस्तावेजों में पहली बार 1870 के प्रयागमेले को कुंभमेला कहा गया।1868 में कुंभमेले के आयोजन का पहला संदर्भ तात्कालिन कलेक्टर जी. एच. एम. रिकेट्स के एक रिपोर्ट से पता चलता है जिसमें 1870 में होने वाले कुंभ के दौरान और अधिक स्वछता पर ध्यान देने की जरुरत की बात की गई है। इसी पत्र से यह भी जानकारी प्राप्त होती है कि चार साल पहले 1866 में आयोजित अर्द्धकुंभ में बहुत भारी भीड़ एकत्रित हुई थी। इस हिसाब से उससे पहले कुंभ 1858 में पड़ा होगा और उसके पहले 1846 में। 1870 के माघमेला को तात्कालीन कमिश्नर जे. सी. रॉबर्ट्सन ने भी इस मेले कुम्भ मेला कहा था। रॉबर्ट्सन की रिपोर्ट में ही सर्वप्रथम साधुओं के जुलूस पर बात भी की गई है जो मेले के दौरान निकलता था। 1874 में इलाहाबाद के कमिश्नर जी. एच. एम. रिकेट्स लिखता है मेला हर 7वें साल में ज्यादा पवित्र हो जाता है। जिसमें बहुत सारे यात्री और व्यापारी आते हैं। इतिहासकार कॉम मैक्लेन के अनुसार 1870 का माघ मेला ही पहला पहला प्रयाग कुंभ था। और इसे हरिद्वार की तर्ज़ पर आयोजित प्रयागवाल ब्राम्हणों ने करवाया था। उनके अनुसार माघमेला प्रयागवाल ब्राम्हणों के आय का प्रमुख स्त्रोत था। लेकिन कंपनी सरकार ने धन के लालच में यात्रियों पर भारी टैक्स लगा दिया था। जिससे कंपनी सरकार और प्रयागवाल ब्राम्हणों आमने-सामने आ गए। मैक्लेन का मानना है इसी वजह से सोसिओ-पॉलिटिक्स को ध्यान में रखकर इन ब्राम्हणों ने हरिद्वार के तौर पर प्रयाग कुंभ का आयोजन करवाया था। हालांकि मैक्लेन के मत से सहमत नहीं हुआ जा सकता है। क्योंकि ब्रिटिश दस्तावेजों में 1866 अर्द्धकुंभ का भी जिक्र आया है। जो इस तरफ इंगित करता है कुंभ का आयोजन पहले से ही हो रहा था।

कुंभ मेले से संबंधित कुछ अन्य फैक्ट्स –

एक 1790 का पत्र महादजी सिंधिया का है, जिसके अनुसार मीर मोहम्मद अहमद नाम के एक व्यक्ति की प्रशंसा की गई थी, कि उसने दक्कन से आए तीर्थयात्रियों की बड़ी सेवा की। यह अवध के नवाब आसफ-उद-दौला का एक अधिकारी था, नवाब ने उस साल तीर्थयात्रियों के कर में बहुत कमी कर दी थी। 1801ईस्वी में कंपनी ने कर प्रणाली की जटिलता से बचने के लिए मेले में कर संग्रह का काम एक स्थानीय व्यक्ति को सौंप दिया था। 1806 में कंपनी सरकार ने तीर्थयात्रियों से कर संग्रह का कार्य अपने हाथ में ले लिया और मेले में स्नान करने वाले किसी भी व्यक्ति पर 1 का रुपए कर निर्धारित कर दिया। वेल्श से आए यात्री और लेखक फैनी पार्क्स के अनुसार, कर बहुत कठोर था उन दिनों 1 रुपया एक व्यक्ति के एक महीने तक आराम से रहने के लिए पर्याप्त था। एक अन्य समकालीन स्रोत कंपनी द्वारा लगाए गए कर को 3 रूपये बताता है और उल्लेख करता है कि नदी के किनारे बैठे ब्राह्मणों को दान और उपहार देने में तीर्थयात्रियों का अधिक खर्च होता था। 1808 कंपनी ने इलाहाबाद में स्नान करने की इच्छा रखने वाले देशी सैनिकों के लिए तीर्थयात्रा करों को माफ करने की घोषणा की। इस कदम का उद्देश्य ब्रिटिश सरकार के प्रति उनकी वफादारी को और मजबूत करना था। 1812 कंपनी ने तीर्थयात्रियों की बढ़ी हुई भीड़ के लिए जो व्यवस्था की वह पिछले 28 वर्षों में नहीं हुई थी। 1840 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रयागतीर्थ को कर मुक्त क्षेत्र घोषित कर दिया। हालांकि व्यापारियों और कामगारों जैसे -नाई इत्यादि से कर लिया जाता था।

प्रयाग, कुंभ और रीवा –

प्रयागराज से लगे होने के कारण विंध्य और रीवा से से बहुत लोग यहाँ तीर्थराज प्रयाग में जाते हैं तथा बहुत लोग अस्थियों के विसर्जन इत्यादि के लिए भी जाते हैं। इतिहास में अगर देखा जाए तो प्रतीत होता है आज के प्रयाग तीर्थ का क्षेत्र प्रारंभिक बघेला शासकों के नियंत्रण में था, उनकी राजधानी गहोरा भी प्रयाग से निकट थी। इसकी पुष्टि वीर भानुदाय काव्य से भी होती है। जिसके अनुसार बघेला शासकों ने यहाँ निवासादि स्थान भी बना रखा था और अरैल घाट में निवास भी करते थे। कुछ फ़ारसी तवारीखों के अनुसार भी गहोरा(बांधवगढ़) का राजा भैद या भीरदेव प्रयाग क्षेत्रों पर नियंत्रण रखता था। जौनपुर के शर्की सुल्तानों के पक्ष में होने के कारण दिल्ली के लोदी सुल्तानों से बघेलों के टकराव भी होते थे। राजा रामचंद्र बाघेला के समय मुग़लों से टकराव के कारण बघेलों ने सुरक्षा की दृष्टि से बांधवगढ़ को अपनी राजधानी बनाई और गहोरा समेत यह पूरा क्षेत्र मुग़ल नियंत्रण में चला गया। रीवा रियासत मुग़लकाल में इलाहाबाद सूबे के अंदर ही आता थी। अंग्रेजी दस्तावेजों से पता चलता है 1833 माघमेला में रीवा के राजकुमार विश्वनाथ सिंह ने इस आधार पर कर देने से इनकार कर दिया कि उन्होंने स्नान नहीं किया है। हालांकि, इलाहाबाद के ब्रिटिश कलेक्टर ने रीवाराज्य को 5,490 रूपये का कर का दस्तावेज भेजा, उन दिनों यह एक बहुत बड़ी राशि होती थी। यह बिल इस आधार पर भेजा गया था कि उन्होंने प्रयागवाल ब्राम्हणों को नियुक्त किया था और उनके दल के लोगों ने अपने सिर भी मुंडवाए थे। 1836 में रीवा के राजा ने अंग्रेजों से अपने 5000 लोगों के दल को कर में छूट देने का अनुरोध किया। अंग्रेजों ने केवल 1000 लोगों को छूट देने पर सहमति जताई। नाराज राजा ने इलाहाबाद की अपनी यात्रा स्थगित कर दी थी।

मुख्य स्नान पर्व-महाकुंभ 2025 –

लगभग 45 दिन चलने वाले इस महापर्व का पहला मुख्य स्नान 13 जनवरी को पौष पूर्णिमा के दिन होगा। जबकि दूसरा प्रमुख स्न्नान उसके अगले ही दिन 14 जनवरी को मकर संक्रांति के दिन होगा। तीसरा प्रमुख स्नान 29 जनवरी मौनी अमावस के दिन और चौथा मुख्य स्नान 3 फरवरी बसंत पंचमी के दिन होगा। पांचवां मुख्य स्नान माघी पूर्णिमा के दिन 12 फरवरी को होगा। और छठवां स्नान 26 फरवरी महाशिवरात्रि के दिन। इसके साथ ही इस महाकुंभ का समापन हो जाएगा।

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