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19 November Salil Chowdhury Birthday | सलिल दा! जन्मदिन मुबारक हो.. FT. अभिषेक त्रिपाठी

19 November Salil Chowdhury Birthday, Salil Chowdhury Biography In Hindi

19 November Salil Chowdhury Birthday, Salil Chowdhury Biography In Hindi

19 November Salil Chowdhury Birthday, Salil Chowdhury Biography In Hindi | पश्चिम बंगाल के 24 परगना में 19 नवंबर 1925 को जन्मे हमारे सलिल दा यानी भारतीय फ़िल्म जगत के महान संगीत रचयिता सलिल चौधरी। संगीत के साथ-साथ लेखन में भी महारत थी उन्हें। एक महान प्रतिभा जिसने देश को अनेक स्तरों पर गौरवान्वित किया। चाहे वो आज़ादी की लड़ाई हो या हो संगीत या फिर समाज के अग्रदूत जिनका हर कोई अनुसरण करे।

फिल्म इंडस्ट्री में अमूमन उस दौर में म्यूजिक कंपोजर और म्यूजिक अरेंजर अलग-अलग व्यक्ति होते थे। कारण यह कि ज़्यादातर कंपोजर हिंदुस्तानी संगीत की परंपरा से आते थे और उन्हें वाद्यवृंद संयोजन या कहें कि पाश्चात्य वाद्यवृंद संयोजन, जिसे आम भाषा में ऑर्केस्ट्रेशन कहा जाता है, की ज़्यादा जानकारी नहीं होती थी। ऐसी स्थिति में पाश्चात्य वाद्य यंत्रों के जानकार संगीतकार म्यूजिक स्कोर लिखने के लिए यानी म्यूजिक अरेंजमेंट करने के लिए अलग से काम पर रखे जाते थे। यह सिलसिला फिल्म संगीत की शुरुआत से लेकर अब तक चलता चला आया है।

यह गुफ्तगू इसलिए मौजूं है क्योंकि सलिल दा अपने गानों का म्यूजिक और आर्केस्ट्रा खुद ही तैयार करते थे। हालांकि उस दौर के व्यस्ततम और नामचीन म्यूजिक अरेंजर सेबेस्टियन डिसूजा उनके सहायक के तौर पर काम करते थे और साथ होते थे कानू घोष भी। सलिल चौधरी पियानो सुरबहार इसराज बांसुरी जैसे वाद्यों में पारंगत तो थे ही, साथ ही साथ पाश्चात्य संगीत की विभिन्न तकनीकें भी उन्हें सिद्ध थीं। चाहे वह हार्मनी हो या काउंटर मेलोडी या ऑब्लिगाटो, सब पर उनका समान अधिकार था।

उनकी उल्लेखनीय फिल्मों में मधुमती, दो बीघा जमीन, रजनीगंधा, छोटी सी बात, काला पत्थर, आनंद, मेरे अपने इत्यादि शामिल हैं। हिंदी और बंगाली के अलावा उन्होंने मराठी, मलयालम, असमिया, कन्नड़, तमिल सहित तेरह भाषाओं की फिल्में अपने संगीत से सजायीं। उनकी धुनों में भारतीय शास्त्रीय संगीत के विभिन्न रागों के रंग तो दिखते ही थे, इसके साथ-साथ पाश्चात्य संगीत की आरपीजीओ जैसी स्वर विन्यास की अनेक तकनीकों का भी वे बखूबी इस्तेमाल करते थे।

अनोखे कॉर्ड प्रोग्रेशन पर बनाई हुई उनकी चमत्कारिक धुनें वाक़ई चमत्कार तो प्रस्तुत करती ही हैं, श्रोताओं को ऐसी चीज़ें भी परोस देती हैं जो उन्हें सोचने पर भी मजबूर करती हैं। कुशल संगीतकार भी उनके धुन निर्माण से अचंभित हुए बिना नहीं रह पाते। म्यूजिक कंपोजर होने के नाते मैं इस बात के समर्थन में एक गाना आपका ध्यान में लाना चाहूंगा।

गाना है-
‘गुज़र जाए दिन दिन दिन,
के हर पल गिन गिन गिन,
किसी की है यादों में,
किसी की है बातों में,
किसी से मुलाकातों ने,
किए सिलसिले,
कब से चले ख़्वाब मेरे
हो गए रंगीन।’
गाया है किशोर कुमार ने और क्या खूब गाया है। पूरे गाने का कॉर्ड प्रोग्रेशन, उस पर पिरोई हुई धुन और शानदार म्यूजिक अरेंजमेंट। सरल बिल्कुल नहीं है, क़तई नहीं है, लेकिन फिर भी आपको साथ गुनगुनाने के लिए मजबूर कर देने वाला गाना है यह। एकदम गजब लगेगा आपको। यही सलिल चौधरी हैं। उनका धुन रचने का हुनर नायाब और आला है।

सलिल दा की वरसेटिलिटी के हिसाब से इसी फिल्म ‘अन्नदाता’ का एक और गाना है-
‘निस दिन, निस दिन,
मेरा जुल्मी सजन…’
लता जी ने अपनी आवाज और गायकी की मिसरी से अमर कर दिया है इस गीत को। सुनिएगा इस गीत को। बस। इस गाने की धुन के पीछे का किस्सा कुछ यूं है कि एक बार सलिल दा केरल में किसी मंदिर में गए थे और उन्होंने एक धुन सुनी। उस धुन से बहुत कनेक्ट बन गया उनका और कालांतर में उन्होंने उस पर आधारित यह गाना बना दिया जिसे पहले बंगला फिर मलयालम और बाद में हिंदी में अलग अलग समय पर रिकॉर्ड किया गया। इस तरह एक अनजानी सी धुन को ख़ूबसूरती के साथ हमारे सामने ले आए सलिल दा।

ऐसी अनेक अनजानी धुनें हैं जिन्हें परिमार्जित करके सलिल चौधरी ने भारतीय संगीत में नए तरीके से परिभाषित कर दिया। पोलियुष्का नाम के सोवियत रूस के आर्मी मार्च की धुन पर आधारित काबुलीवाला फिल्म का गीत- ‘ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझपे दिल कुर्बान’ भी ऐसा ही एक उदाहरण है। रूसी धुन सुनकर आप ज़रा भी अंदाजा नहीं लगा पाएंगे कि इसी धुन पर सलिल चौधरी ने इतना मार्मिक गाना रच दिया है।

सलिल चौधरी ने जनगीतों और थिएटर म्यूजिक की दुनिया में भी अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई। भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा से उनका गहरा सरोकार रहा और वह पूरे जीवन इस जन आंदोलन से जुड़े रहे। जन आंदोलन से जुड़ने की शुरुआत सलिल दा की होती है भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी से। उनकी ज्वलंत प्रतिभा ने उन्हें एक फायरब्रांड एक्टिविस्ट बना दिया। उनकी प्रतिभा के ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं। बिमल रॉय की फिल्म दो बीघा जमीन के लिए उन्हें 1954 में कान्स में प्रिक्स इंटरनेशनल अवॉर्ड हासिल किया।

बचपन में हमने उनके खूब प्रोग्राम देख टीवी पर जिसमें देशभक्ति के समूह गीतों की प्रस्तुतियां होती थी। केंद्रीय निर्माण प्रस्तुति के माध्यम से इन्हें दूरदर्शन पर प्रस्तुत किया जाता था। सलिल चौधरी को याद करना इसलिए भी जरूरी है कि आज के इस दौर में जब संगीत के क्षेत्र में तकनीक के नाम पर साउंड के मेल-बेमेल प्रयोग हो रहे हैं तब वास्तविक संगीत की तकनीक को प्रभावी रूप से इस्तेमाल करते हुए फिल्म संगीत के स्वर्णिम युग में रचनात्मक संगीत रचते हुए सलिल चौधरी ने संगीत की मूल आत्मा से कभी भी समझौता नहीं किया। उनके संगीत में हर कलाकार के लिए सीखने की की अनंत चीज मौजूद हैं जिनके लिए कलाकार न जाने कितने यत्न करते हैं प्रयत्न करते हैं।
एक संपूर्ण कलाकार सलिल चौधरी साहब को जन्मदिन मुबारक।

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