शोमैन राजकपूर के 100 साल:आज बात उस शख्सियत की जिसके योगदान पर ग़ौर किए बिना फिल्मों का इतिहास अधूरा है मतलब भारतीय फिल्म जगत को ऊंचाई पर पहुंचाने वालों में उनका हांथ बहोत ज्यादा है उनकी रचनात्मकता कल्पनाशीलता ने सिनेमा को नया रूप प्रदान किया है समाज को एक नया नज़रिया दिया है जो परिवेश उन्होंने सिनेमा में दिखाया उसने समाज में न केवल बदलाव की लहर ला दी बल्कि आम जन का जुड़ाव भी सिनेमा सेबढ़ गया , आम जन की भाषा रूप रंग परिवेश और परिस्थितियां उनके अभिनय से लेकर निर्देशन में भी झलका और राज कपूर का नाम सबकी जुबान पर चढ़ गया वो भी महज़ 27 साल की उम्र में
जब उन्होंने फिल्म आवारा की थी
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और जब वो रीवा से दुल्हनिया ब्याह कर ले गए तो रीवा वालों के तो चहीते दामाद बन गए और फिल्म आह में जब उन्होंने बैलगाड़ी में जाते वक्त कहा कि रीवा जाना है तो सिनेमा हॉल सीटियों और तालियों से गूंज उठे ,
इस बात को हम इसलिए भी आपको याद दिल रहें हैं कि उनकी और उनकी पत्नी कृष्णा मल्होत्रा की याद में रीवा का कृष्ण राजकपूर ऑडिटोरियम बनाया गया है ।
उनकी फिल्मों में फिल्मांकन इतनी बारीकी से किया जाता था कि सुबह शाम के जो रंग पर्दे पर हम महसूस कर लेते थे वो हक़ीक़त में हम देख नहीं पाते थे और वो दृश्य हमारी नज़रों से ओझल हो जाते थे और राज कपूर साहब इसी अनुपम छटा को कैमरे में कैद करके हमारे सामने बिखेर देते थे यहां तक कि हीरोइन की बिखरी ज़ुल्फ़ों की ओट से उसके चेहरा का उजाला भी देखने लायक होता था उसमें भी पर्दे का कलर कॉम्बिनेशन बेमिसाल ,एक चित्रकार की भांति फिल्मों के निर्माण की बात करें तो इसी पैनी नज़र के ज़रिए उन्होंने कई कलाकारों की काबिलियत को पहचाना और राज कपूर की फिल्मों से उनका प्रवेश फिल्म जगत में हुआ
एक और खासियत रही उनकी बनाई फिल्मों कि,वो अक्सर फिल्म में नई अदाकारा का तार्रुफ कराते थे फिल्म जगत से और अपनी इसी रवायत के साथ
अपनी शुरूआती फ़िल्मों में प्रेम कहानियों को मादक अंदाज से परदे पर पेश करके उन्होंने हिंदी फ़िल्मों के लिए जो रास्ता तय किया, इस पर उनके बाद कई फ़िल्मकार चले और उन्हें नाम मिला ‘शोमैन’ ।
सोवियत संघ और मध्य-पूर्व में राज कपूर की लोकप्रियता दंतकथा बन के उभरी ,उनकी फ़िल्मों खासकर श्री ४२० में बंबई की जो मूल तस्वीर पेश की गई है, वो फ़िल्म निर्माताओं को अभी भी आकर्षित करती है। कहते हैं राज कपूर की फ़िल्मों की कहानियां आमतौर पर उनके जीवन से जुड़ी होती थीं और अपनी ज़्यादातर फ़िल्मों के मुख्य नायक वे खुद होते थे।
सन् 1935 में मात्र 11 वर्ष की उम्र में राजकपूर ने फ़िल्म ‘इंकलाब’ में अभिनय किया था। उस समय वे बॉम्बे टॉकीज़ स्टुडिओ में हेल्पर का काम करते थे फिर केदार शर्मा के साथ क्लैपर ब्वाॅय का कार्य करने लगे।
ये भी कहा जाता है कि पृथ्वीराज कपूर यानी उनके पिता को विश्वास नहीं था कि राज कपूर कुछ ख़ास कर पायेगा, इस वजह से उन्होंने राज जी को सहायक या क्लैपर ब्वाॅय जैसे छोटे काम में लगवा दिया था।
लेकिन पृथ्वीराज कपूर के साथी रहे वीरेन्द्रनाथ त्रिपाठी जो बाद में राज कपूर के भी निजी सहायक एवं सहयोगी निर्देशक बन के उनके साथ भी खड़े रहे उन्होंने ही पृथ्वीराज कपूर जी से कहा था कि आप उदास न हों राज पढ़ाई में नहीं अच्छे तो क्या हुआ मगर ये फिल्मी दुनिया में शानदार काम करेंगे। हालांकि जब तक उनको केदार शर्मा जी अपनी फिल्म’नीलकमल’ बतौर नायक दे चुके थे पर इसके बावजूद पृथ्वीराज जी का कहना था कि उसे मेरा बेटा होने की वजह फिल्मों में काम मिला है लेकिन पिता होने के नाते उनके दिल में ये अरमान था कि एक दिन वो भी आए कि मुझे लोग उसका पिता होने के नाते जानें और शायद उनकी ये कामना आशीर्वाद बनके उनके साथ रहा जिसकी वजह से राज कपूर का नाम फिल्म जगत में स्वर्ण अक्षरों में अंकित हुआ ।
नायक के रूप में राज कपूर का फ़िल्मी सफ़र ‘हिन्दी सिनेमा की वीनस’ मानी जाने वाली सुप्रसिद्ध अभिनेत्री मधुबाला के साथ आरंभ हुआ। 1946-47 में प्रदर्शित केदार शर्मा की ‘नीलकमल’ तथा मोहन सिन्हा के निर्देशन में बनी ‘चित्तौड़ विजय’ और ‘दिल की रानी’ तथा 1948 में एन॰एम॰ केलकर द्वारा निर्देशित ‘अमर प्रेम’ में भी मधुबाला ही राज कपूर की नायिका थी। नरगिस के आलावा मधुबाला के साथ ही राज कपूर ने सबसे अधिक फिल्मों में नायक की भूमिका की है। 1948 में प्रदर्शित ‘आग’ वह पहली फिल्म थी जिसमें अभिनेता के साथ साथ निर्माता-निर्देशक के रूप में भी राज कपूर सामने आये , पर फिल्म में काफी कमियां निकली गईं इसके बाद 1949 में राज कपूर ‘बरसात’ फिल्म में अभिनेता के साथ-साथ निर्माता-निर्देशक के रूप में एक बार फिर उपस्थित हुए और इस फिल्म ने सफलता का नया मानदंड कायम कर दिया, इस फिल्म की लगभग पूरी टीम ही नयी थी। संगीतकार नये थे– शंकर-जयकिशन। गीतकार नये थे– हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र, लेखक भी नया चुना गया — रामानन्द सागर के रूप में , फिल्म की नायिका भी नयी थी– निम्मी। इतना ही नहीं राधू कर्मकार, एम॰आर॰ अचरेकर और जी॰जी॰ मायेकर जैसे नये टैक्नीशियनों की पूरी टीम थी।
इस वजह से समीक्षकों ने कहा कि ‘आग’ में जो कुछ जलने से रह गया है वह ‘बरसात’ में बह जाएगा लेकिन राज कपूर ने किन्हीं की बातों पर ध्यान नहीं दिया सिर्फ एक वर्ष के समय में ‘बरसात’ पूरी हो गयी और 1949 में ‘बरसात’ के प्रदर्शन के साथ ही हिन्दी सिनेमा में विस्मय का विस्फोट हुआ। शंकर-जयकिशन, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, रामानन्द सागर, निम्मी और सारे टैक्नीशियन रातों-रात चोटी पर पहुँच गये। ‘बरसात’ का संगीत देश-काल की सीमाओं को लाँघ गया। चारों ओर मुकेश और लता के गाये हुए गीतों की धुन थी। गायिका लता मंगेशकर की पहचान भी ‘बरसात’ फिल्म में ही मुख्यतः बन पायी। ‘बरसात’ पूरी तरह एक नयी फिल्म थी जिसकी नसों में पूरा का पूरा नया खून था। इतनी ताज़गी और स्वनिर्मिती के साथ जुड़कर इस तरह सफल होने का दूसरा कोई उदाहरण आज़ादी के बाद के हिन्दी सिनेमा के पास नहीं है।
बरसात’ की इस बेतहाशा कमियाबी का अंजाम ये हुआ कि इसके अगले वर्ष ,सन् 1950 में नायक के रूप में राज कपूर की छह फिल्में आयीं और शायद
राज कपूर के पूरे नायक युग में एक वर्ष में इससे अधिक फिल्में कभी नहीं आयीं। इस वर्ष नरगिस के साथ उनकी ‘जान पहचान’ और ‘प्यार’ फिल्में आयीं। केदार शर्मा के निर्देशन में गीता बाली के साथ ‘बावरे नयन’, ए॰आर॰ कारदार के निर्देशन में सुरैया के साथ ‘दास्तान’, जी॰ राकेश के निर्देशन में निम्मी के साथ ‘भँवरा’, और रेहाना के साथ पी॰एल॰ सन्तोषी के निर्देशन में ‘सरगम’ सन् 1950 में रिलीज होने वाली फिल्में थीं। इनमें कारदार की ‘दास्तान’ सबसे अधिक सफल रही। यह एकमात्र फिल्म है जिसमें राज कपूर, सुरैया के साथ नायक बने। ‘सरगम’, ‘दास्तान’ और ‘बावरे नयन’ का संगीत अत्यधिक लोकप्रिय हुआ। ‘सरगम’ और ‘बावरे नयन’ भी टिकट-खिड़की पर सफल रहीं।
इसके बाद राज कपूर ने अपनी फिल्म ‘आवारा’ बना कर ये साबित कर दिया कि वो हर मोर्चे पर बड़े-बड़े दिग्गजों के हौसले पस्त कर सकते है।
सन् 1951 में प्रदर्शित ‘आवारा’ हिन्दी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर बनी ,इसने राज कपूर को नायक के रूप में नयी और अलग पहचान दी ,फिल्मकार के रूप में एक दृष्टिकोण दिया; और उनकी फिल्मों को सामाजिक यथार्थ के धरातल पर ला खड़ा किया। सुप्रसिद्ध फिल्म-समालोचक प्रहलाद अग्रवाल के शब्दों में :
” ‘आवारा’ ने इस सत्ताइस साल के नौजवान को उस ऊँचाई पर पहुँचा दिया, जहाँ तक पहुँचने के लिए बड़े-से-बड़ा कलाकार लालायित हो सकता है। ‘आवारा’ ने ही उसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की। यहाँ तक कि वो पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तित्व बन गया– सोवियत रूस में। रूस और अनेक समाजवादी देशों में ‘आवारा’ को सिर्फ प्रशंसा ही नहीं मिली, वरन् वहाँ की जनता ने भी बेहद आत्मीयता के साथ इसे अपनाया।”
लेखक-पत्रकार विनोद विप्लव के शब्दों को याद करें तो:
“भारत ने विश्व स्तर पर चाहे जो छवि बनायी हो और उसके जो भी नये प्रतीक हों, लेकिन इतना तय है कि चीन, पूर्व सोवियत संघ और मिस्र जैसे देशों में राजकपूर हमेशा के लिए भारत का प्रतीक बने रहेंगे। चीन के सबसे बड़े नेता माओ त्से तुंग ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि ‘आवारा’ उनकी सर्वाधिक पसंदीदा फिल्म थी। शायद यही कारण है कि आज भी पेइचिंग और मास्को की सड़कों पर घूमते-टहलते हुए ‘आवारा हूं’ गीत सुनाई पड़ने लगते हैं। यह राज कपूर की लोकप्रियता के विशाल दायरे का एक उदाहरण मात्र है।”
फिल्म आह की समीक्षा :-
सुप्रसिद्ध फिल्म समालोचक प्रहलाद अग्रवाल के मुताबिक:
“अपने दौर की सभी विशेषताओं को लिए हुई थी ‘आह’। इसका संगीत तो बेहद लोकप्रिय हुआ था। उसकी गुरुता और मोहनी-शक्ति ‘बरसात’ और ‘आवारा’ से उन्नीस नहीं, बीस थी। ‘राजा की आएगी बारात, रंगीली होगी रात, मगन मैं नाचूँगी’, ‘आजा रे अब मेरा दिल पुकारा’ और ‘जाने न नज़र पहचाने जिगर’ आदि गीत बेहद लोकप्रिय हुए थे।… फिर भी ‘आह’ इसलिए असफल हो गयी, क्योंकि ‘आवारा’ ने राज कपूर की इमेज एक बिल्कुल अलग किस्म के मस्तमौला, फक्कड़ नौजवान की बना दी थी। उस फ्रेम में राज कपूर का यह निराशावादी व्यक्तित्व कहीं नहीं अँटता था।”
लेकिन ‘ आह’ की असफलता के तुरंत बाद आर॰के॰ बैनर तले एक ऐसी फिल्म बनायी गयी जिसने पूरे फिल्म उद्योग को चौंका दिया। ये फिल्म थी ‘बूट पॉलिश’, जिसमें राज कपूर खुद नायक भी नहीं थे और नरगिस भी नहीं थी। इसमें थे दो बाल कलाकार– बेबी नाज़ और रतन कुमार और प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता अब्राहम डेविड। बाल फिल्मों की सफलता हमेशा ही संदिग्ध रही है। परन्तु राज कपूर के महत्वाकांक्षी व्यक्तित्व के अनुरूप ‘बूट पॉलिश’ एक ऐसा करिश्मा साबित हुई जिसने उनकी प्रतिष्ठा पर लगे धक्के के एहसास तक को खत्म कर दिया। इसकी रजत-जयंती सफलता ने पूरे फिल्म उद्योग को अचंभे में डाल दिया।
सन् 1955 में आर॰के॰ फिल्म्स की ‘श्री 420’ ने फिर से राज कपूर को सबसे बढ़कर बना दिया। इस फिल्म को सफलता तो मिली ही, देश-विदेश में सराहना भी हुई। और इन दोनों से बढ़कर ये कि ‘श्री 420’ अपने समय की सबसे अलग फिल्म थी बिल्कुल नए मिज़ाज की। दर्शकों को इसमें नया स्वाद मिला। उन्होंने इसकी संवेदनशील भाषा में सामाजिक ज़िन्दगी का नया अर्थ पहचाना। तब देश आज़ाद हुए कुल 8 वर्ष हुए थे। जनमानस पर आज़ादी का नशा छाया हुआ था। उस समय ‘श्री 420’ में सभ्यता और प्रगति की आड़ में पनप रही खोखली नैतिकता को पहचानने की कोशिश के साथ ही उसके संभावित खतरों से आगाह किया गया था। इस फिल्म में राज कपूर का अभिनय बेमिसाल है। इसमें वे मज़ाक ही मज़ाक में बहुत बड़ी बातें कहते हैं। यह एक ऐसी फिल्म थी जो अपने समय की ज़रूरत को पूरा करती है। हर वर्ग के दर्शक के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेती है।
सन् 1956 राज कपूर के जीवन का महत्त्वपूर्ण साल रहा। इसी वर्ष वे एक ओर कलात्मक ऊँचाइयों के चरमोत्कर्ष तक पहुँचे और दूसरी ओर लोकप्रियता के उच्चतम शिखर तक भी। वे हिन्दी सिनेमा में अपने ढंग का अलग व्यक्तित्व बन गये, जिसका कोई मुकाबला नहीं। इस वर्ष उनकी दो फिल्में प्रदर्शित हुईं– ‘जागते रहो’ और ‘चोरी-चोरी’। इनमें से व्यावसायिक दृष्टि से ‘चोरी-चोरी’ अधिक सफल रही थी तथा अत्यधिक लोकप्रिय भी। ‘जागते रहो’ को शुरुआत में अधिक व्यवसायिक सफलता नहीं मिली; परंतु ये एक महान फिल्म थी। इस फिल्म को कार्लोरीवेरी अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ‘ग्रैंड प्रीं’ पुरस्कार मिला। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत होने के उपरान्त हिन्दी दर्शक इस फिल्म का नाम सुनकर चौंके और दोबारा प्रदर्शित होने पर पहले की अपेक्षा ‘जागते रहो’ को अधिक सफलता प्राप्त हुई। उस समय तक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी भारतीय फिल्म को इतना बड़ा पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ था। ये पुरस्कार मिलने के बाद ,कला समीक्षकों ने इसे हिन्दी सिनेमा की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना।
1959 में आकर ‘अनाड़ी’ ने राज कपूर को फिर अनोखे रूप में प्रस्तुत किया। निराशा का एक दौर समाप्त हुआ और सृजनात्मकता का नया अध्याय आरंभ। इसमें उत्कृष्ट अभिनय के लिए राज कपूर को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ‘फिल्मफेयर पुरस्कार’ भी मिला फिर
संगम’ में राज कपूर अपनी बहुआयामी प्रतिभा के साथ उपस्थित हुए। ‘संगम’ के निर्माता, निर्देशक, संपादक और नायक वे स्वयं थे। इस फिल्म के लिए उन्हें ‘फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार’ और ‘फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सम्पादक पुरस्कार’जीता ।
आपकी फिल्म ‘तीसरी कसम’ को ‘राष्ट्रपति स्वर्ण पदक’ मिला, बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा सर्वश्रेष्ठ फिल्म और कई अन्य पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया गया। मास्को फिल्म फेस्टिवल में भी ये फिल्म पुरस्कृत हुई। इसकी कलात्मकता की काफी प्रशंसा की गयी।
सन् 1970 के दिसंबर में आर॰के॰ फिल्म्स की अपने समय की सबसे महँगी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ अखिल भारतीय स्तर पर एक साथ प्रदर्शित हुई। यह राज कपूर के जीवन की सबसे महत्त्वाकांक्षी फिल्म थी।
‘आवारा’, ‘श्री 420’ तथा ‘मेरा नाम जोकर’ राज कपूर के सृजन के तीन शिखर हैं तथा उनके जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करने के महत्वाकांक्षी माध्यम भी। यही कारण है कि राज कपूर ने ‘आवारा’ तथा ‘श्री 420’ इन दोनों फिल्मों को किसी न किसी रूप में मेरा नाम जोकर से सम्बद्ध किया है। ‘मेरा नाम जोकर’ में ‘आवारा’ का प्रसिद्ध गीत ‘आवारा हूँ’ दोहराया गया है तथा ‘श्री 420’ के कई दृश्यों की झलक दिखलायी गयी है। इसलिए ‘मेरा नाम जोकर’ को समझने के लिए ये ज़रूरी है कि उसे देखने से पहले आप ‘श्री 420’ को अवश्य देख लिया गया हो।
‘मेरा नाम जोकर’ जैसी क्लासिक फिल्म की व्यावसायिक असफलता तथा अपनी व्यावसायिक क्षमता के प्रति लोगों की आशंकाओं को निराधार साबित करते हुए राज कपूर ने स्वनिर्मित ‘बॉबी’ फिल्म से सिद्ध कर दिया कि यदि बॉक्स ऑफिस ही उनके ध्यान में हो तो वे बड़े-बड़े सितारों के बिना भी बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा देने में पूरी तरह सक्षम हैं। बॉबी सन् 1973 में प्रदर्शित हुई जो बॉक्स आफिस पर सुपरहिट हुई। अपनी इस फ़िल्म में उन्होंने अपने बेटे ऋषि कपूर और डिम्पल कपाड़िया जैसे बिल्कुल नये कलाकारों को मुख्य भूमिका में लिया और दोनों ही सुपरहिट स्टार साबित हुए।
बॉबी फ़िल्म की सफलता के बाद राज कपूर ने अगली फ़िल्म ‘सत्यम शिवम सुन्दरम’ बनायी जो कि फिर एक बार हिट हुई। इस फिल्म ने यद्यपि रजत जयंती मनायी, पर जितनी आकांक्षाएँ इसको लेकर पैदा की गयी थीं, उन पर ये पूरी नहीं उतरी। हालाँकि उन्होंने इस फिल्म पर पानी की तरह पैसा बहाया। एक-एक दृश्य को चरम सीमा तक खूबसूरत बनाने के लिए उन्होंने कड़ा परिश्रम किया था। इस फ़िल्म के क्लाइमेक्स में बाढ़ का दृश्य था जिसे फ़िल्माने के लिये उन्होंने अपने खर्च से नदी पर बांध बनवाया और नदी में भरपूर पानी भर जाने के बाद बांध को तुड़वा दिया जिससे कि बाढ़ का स्वाभाविक दृश्य फ़िल्माया जा सके।
सन् 1985 में रणधीर कपूर द्वारा निर्मित तथा राज कपूर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ प्रदर्शित हुई। यह वह समय था जब पिछले कुछ वर्षों में फिल्म उद्योग के प्रायः सभी हिन्दी फिल्म निर्माता चमत्कारी सफलता का मुंह देखने के लिए तरस गये थे। इस फिल्म के भी रिलीज होने के एक दिन पहले तक किसी को अनुमान भी नहीं था कि राज कपूर का जादू फिर लोगों के सिर चढ़कर बोलेगा। वैसे भी फिल्म में कोई स्टार नहीं था जिसका सम्मोहन दर्शकों को खींचता। राजीव कपूर की इससे पहले की फिल्म फ्लॉप हो चुकी थीं। लेकिन जब यह फिल्म रिलीज हुई तो इसने सफलता का नया कीर्तिमान रच दिया। फिल्म के एक दृश्य में पहाड़ों में रहने वाले एक लड़की के निर्द्वन्द्व तथा उन्मुक्त जीवन को दर्शाने के लिए दिखलाये गये छोटे से उन्मुक्त दृश्य पर कुछ लोगों ने काफी शोर मचाया सवाल खड़े किए परंतु इस फिल्म को देखने के लिए उमड़ी पारिवारिक दर्शकों की भारी भीड़ तथा उसमें भी महिलाओं की प्रभूत संख्या ने सबके मुंह बंद कर दिये।
राम तेरी गंगा मैली बनाने के बाद वे ‘हिना’ के निर्माण में लगे थे जिसकी कहानी भारतीय युवक और पाकिस्तानी युवती के प्रेम-सम्बन्ध पर आधारित थी। ‘हिना’ के निर्माण के दौरान 2 जून 1988 को राज कपूर इस जहां को अलविदा कह गए और उस फ़िल्म को उनके बेटे रणधीर कपूर ने पूरा किया।
आज भी चार्ली चैप्लिन से राज कपूर की तुलना की जाती है
जो तकनीक उस वक्त उन्होंने फिल्म निर्माण में अपनाई उसी को अपनाते हुए या उसी दिशा में आगे बढ़ते हुए आज हम यहां तक पहुंचे हैं।
राज कपूर को सन् 1987 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्हें कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा, सन् 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
सम्मानित किया गया।
- फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला फिल्म – अनाड़ी,जिस देश में गंगा बहती है के लिए
फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार और
सर्वश्रेष्ठ सम्पादक पुरस्कार मिला – संगम में
फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार – मेरा नाम जोकर
और – प्रेम रोग में मिला
सर्वश्रेष्ठ सम्पादक पुरस्कार – भी जीता फिल्म प्रेम रोग में
सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ सम्पादक पुरस्कार – आपने राम तेरी गंगा मैली में जीता –
उनकी फिल्में हमारे लिए फिल्म जगत के लिए एक बहुमूल्य धरोजर हैं।
यह भी देखें :https://youtu.be/nVvUl7Ke3Ms?si=dgejYzMhu-4ircww