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क्या अपनी तारीफ करना सही है?

न्याज़िया
मंथन। माना कि हम बहोत गुणीं हैं बहुत क़ाबिल हैं पर क्या अपनी तारीफ करना सही है ?अपने लिए बड़े-बड़े दावे करना सही है? कहीं ये कॉन्फिडेंस ,ओवर कॉन्फिडेंस तो नहीं है ? बेशक ,खुद को समझना ,जानना और भरोसा करना ज़रूरी है, हो भी सकता है कि हम बहुत फूंक फूंक कर क़दम रखते हों और हमसे ज़्यादा ग़लतियां न होती हों या हमारी नज़र में होती ही न हों और ये हमारे लिए अच्छी बात भी है,कि हम सभी पहलुओं पर नज़र रखते हुए आगे बढ़ रहे हैं और हमारा काम अच्छा हो रहा है पर इसमें अपना गुणगान करने वाली कोई बात नहीं है क्योंकि इससे हम रास्ता भटक भी सकते हैं ,लापरवाही बरत सकते हैं ये मानकर कि हमसे तो ग़लती हो ही नहीं सकती हम तो हमेशा अच्छा ही करते हैं ,हम किसी अहम पहलू को नज़र अंदाज़ भी कर सकते हैं और बड़ी ग़लती हो सकती है ,हम उस कुएं की मेंढक जैसे भी हो सकते हैं जो इतना संतुष्ट हो जाता है कि बाहर की दुनिया को जानना ही नहीं चाहता। फिर तारीफ तो वहीं है जो दूसरे करें।

रहीमदास जी ने कहा

रहीमदास जी ने कहा भी है कि, – बड़े बड़ाई ना करैं, बड़ो न बोलैं बोल। रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल॥
अर्थात हीरे जैसा गुणवान ,अपने मुंह से अपनी तारीफ़ नहीं करता क्योंकि अगर वो हीरा है तो उसकी चमक सबको दिख जाएगी,
उसका बड़प्पन उसकी सरलता में झलकेगा वो न अपनी बड़ाई करेगा और न आपका अपमान क्योंकि वो आपकी भी अच्छाई देखेगा बुराई नहीं। यही गुण हैं हीरे के, इसलिए बेहतर है कि हम हमेशा अच्छा करने की कोशिश करें, फिर चाहे हर बार वही काम करना हो ,ताकि वही काम अगली बार और निखर के सामने आए हम ,उसमें महारत हासिल कर लें वो काम हमारे लिए इतना आसान हो जाए कि हम और दूसरी तरफ भी नज़र डाल सकें शायद कुछ और भी हम अच्छे से कर सकें ,दूसरों से बेहतर कर सकें ,किसी को मार्ग दर्शन दे सकें ताकि हमें जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ा इस राह पे चलने वाले अगले इंसान को उसका सामना न करना पड़े, वो सम्भल जाए और आसानी से अपनी मंज़िल पा ले। ये वो राह जो आपको बेहतर से बेहतर बनाती है पथप्रदर्शक बनाती है ,नई राहें खोलती है जो हमें और ऊंचा मकाम दिलाती हैं ।
सोचिएगा ज़रूर इस बारे में ,फिर मिलेंगे आत्म मंथन की अगली कड़ी में।

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