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फिल्मों में रहे लेकिन शास्त्रीय गायक की छवि के साथ, मोहम्मद रफ़ी भी थे मन्ना डे के मुरीद

manna dey death anniversary

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न्याजिया बेग़म
manna dey death anniversary: फिल्मों में रहे लेकिन शास्त्रीय गायक की छवि के साथ ,कौन थे ये माहिर गुलूकार जिन्हें बड़े मुश्किल मुश्किल गाने दिए जाते थे, जैसे: झनक झनक तोरी बजे पायलिया ,एक चतुर नार बड़ी होशियार , ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन,जहां मैं जाती हूं वहीं चले आते हो, ऐ मेरी ज़ोहरा जबीं तुझे मालूम नहीं, यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िंदगी या फिर प्यार हुआ इकरार हुआ,झूमता मौसम मस्त महीना ,आजा सनम मधुर चांदनी में हम ,तू प्यार का सागर है ,तुझे सूरज कहूं या चंदा , कस्मे वादे प्यार वफा सब ,और भी जाने कितने ऐसे गाने जो आज भी हमारे दिलों के क़रीब हैं इन्हें सुन के ये लगना लाज़मी है कि हर नग़्मा अपने आप में बेमिसाल है, जी हां हम बात कर रहे हैं , प्रबोध चंद्र डे, की जिन्हें मन्ना डे या मन्ना दा के नाम से भी जाना जाता है, वो एक प्रसिद्ध भारतीय पार्श्व गायक, संगीत निर्देशक और संगीतकार रहे। भिंडीबाज़ार घराने का हिस्सा होने और उस्ताद अमान अली खान से संगीत की तालीम हासिल करने की वजह से उनकी पृष्ठभूमि शास्त्रीय संगीत की थी । मन्ना डे को हिंदी फिल्म उद्योग में सबसे बहुमुखी और प्रसिद्ध गायकों में से एक माना जाता है तो वहीं भारतीय शास्त्रीय संगीत को हिंदी सिनेमा में एकीकृत करने में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए भी याद किया जाता है। एक संगीतकार के रूप में, मन्ना डे को भारतीय शास्त्रीय संगीत को पॉप संगीत के ढांचे में शामिल करने के लिए भी विशेष रूप से जाना जाता है, उनके योगदान ने हिंदी सिनेमा के स्वर्ण युग के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने पांच दशक के करियर में मन्ना डे ने कुल 3,047 गाने रिकॉर्ड किये, उनके अधिकांश गाने बंगाली और हिंदी में थे, उन्होंने भोजपुरी, पंजाबी, असमिया, गुजराती, कन्नड़, मलयालम और छत्तीसगढ़ी सहित 14 अन्य भारतीय भाषाओं में भी अपनी लाजवाब गायकी का जौहर दिखाया । वो अपने इसी हुनर के चलते 1950 के दशक के मध्य से 1970 के दशक के दौरान सफलता के चरम पर रहे।


भारतीय संगीत में अपने उत्कृष्ट योगदान के लिए मन्ना डे को भारत सरकार से कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले। उन्हें 1971 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया, उसके बाद 2005 में पद्म भूषण और 2007 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया इसके अलावा फिल्म फेयर पुरस्कार और भी कई अन्य पुरस्कार उनके नाम रहे जिनकी फेहरिस्त बहोत लंबी है 1 मई 1919 को कलकत्ता (अब के कोलकाता ) में एक बंगाली परिवार में महामाया और पूर्ण चंद्र डे के घर जन्में मन्ना डे अपने माता-पिता के अलावा, उनके सबसे छोटे चाचा, संगीताचार्य कृष्ण चंद्र डे से भी बहुत प्रेरित और प्रभावित थे । गोबर गुहा से प्रशिक्षण लेकर वो अपने कॉलेज के दिनों में कुश्ती और मुक्केबाजी जैसे खेलों में भी भाग लिया करते थे । उनके बचपन के दिनों का एक दिलचस्प वाक़िअ है, उस्ताद बादल खान और मन्ना डे के चाचा एक बार साथ-साथ रियाज़ कर रहे थे। तभी बादल खान ने मन्ना डे की आवाज़ सुनी और उनके चाचा से पूछा – “यह कौन गा रहा है?” जब मन्ना डे को बुलाया गया तो उन्होंने उस्ताद से कहा – “बस ऐसे ही गा लेता हूँ।” लेकिन बादल खान ने मन्ना डे की छिपी प्रतिभा को पहचान लिया। इसके बाद ही उनके चाचा जी उन्हें संगीत की शिक्षा देने लगे।

मन्ना दा जब कृष्ण चंद्र डे और उस्ताद दबीर खान से संगीत की शिक्षा ले रहे थे तो अंतर-कॉलेजिएट गायन प्रतियोगिताओं की तीन अलग-अलग श्रेणियों में लगातार तीन वर्षों तक प्रथम स्थान पर रहे, जिससे उनका हौसला बढ़ गया, मन्ना डे 40 के दशक में अपने चाचा के साथ संगीत के क्षेत्र में अपने सपनों को साकार करने के लिये मुंबई आ गये। और फिर यहीं के होकर रह गये, 1939 में उन्होंने पहले बंगाली फिल्म ‘ चाणक्य’ में कृष्ण चंद्र डे और फिर सचिन देव बर्मन के साथ सहायक संगीत निर्देशक के रूप में काम करना शुरू किया । बाद में, उन्होंने अन्य संगीतकारों की सहायता की और फिर स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू कर दिया उन्ही दिनों वो उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल रहमान खान से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में संगीत की तालीम हासिल करने में लग गए। मन्ना डे ने बॉलीवुड में अपने गायन करियर में लगभग 185 संगीत निर्देशकों के साथ काम किया ।

1943 में फिल्म तमन्ना में बतौर प्लेबैक सिंगर उन्हें सुरैया के साथ गाने का मौका मिला। हालांकि इससे पहले वह फिल्म रामराज्य में कोरस के रूप में गा चुके थे। दिलचस्प बात है कि यही एक एकमात्र फिल्म थी, जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देखा था। मन्ना डे केवल शब्दो को ही नहीं गाते थे, बल्कि अपने गायन से शब्द के पीछे छिपे भाव को भी खूबसूरती से सामने लाते थे। शायद यही कारण है कि प्रसिद्ध हिन्दी कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी अमर कृति मधुशाला को स्वर देने के लिये मन्ना डे का चयन किया। सन् 1961 में संगीत निर्देशक सलिल चौधरी के संगीत निर्देशन में फिल्म काबुलीवाला की सफलता के बाद मन्ना डे शोहरत की बुलन्दियों पर जा पहुँचे। उस वक्त के उनके कुछ गाने जैसे 1944 की फिल्म कादंबरी का गाना “ओ प्रेम दीवानी संभल के चलना”, अनिल बिस्वास का संगीतबद्ध, “दूर चले” (1946) ज़फ़र खुर्शीद के संगीत निर्देशन में , अमीर बाई के साथ उनके युगल गीत जैसे “ऐ दुनिया ज़रा सुने” फिल्म कमला (1946) और मीना कपूर के साथ 1947 की फ़िल्म चलते-चलते का युगल गीत चार्टबस्टर बन गये।

उन्होंने पहली बार 1950 की फिल्म मशाल में सचिन देव बर्मन द्वारा संगीतबद्ध किए गए गाने ‘ ऊपर गगन विशाल’ और ‘ दुनिया के लोगो’ , गाए , जो काफी लोकप्रिय हुए और यहीं से एस डी बर्मन के साथ उनका जुड़ाव भी शुरू हुआ। इसके बोल कवि प्रदीप ने लिखे थे . 1952 में, मन्ना डे ने एक ही नाम और कहानी वाली एक बंगाली और मराठी फिल्म, अमर भूपाली के लिए गाना गाया और इसके गीतों ने उन्हें बंगाली फिल्मों और मराठी फिल्मों में एक प्रमुख पार्श्व गायक के रूप में स्थापित कर दिया।

मन्ना डे ने 1948 से 1954 के बीच न केवल शास्त्रीय आधारित फिल्मी गाने बल्कि ऐसे फिल्मी गाने भी गाए जो भारतीय शास्त्रीय संगीत और पॉप संगीत का मिश्रण थे, कुछ मुख्तलिफ शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों को देकर भी वो अपनी काबिलियत को दुनिया के सामने लाने में कामियाब हुए । पश्चिमी संगीत के साथ उनके प्रयोग ने कई अविस्मरणीय धुनें तैयार कीं, जिसके परिणामस्वरूप 1955 से फिल्मों में गायन के प्रस्ताव बढ़ गए और उन्होंने 1953 से हिंदी फिल्मों में ग़ज़ल भी गाना शुरू किया ।
1954 तक,मन्ना डे ,दो बीघा ज़मीन (1953) की रिलीज के बाद राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हो गए, सलिल चौधरी ने 1953 से 1992 तक मन्ना डे के साथ हिंदी फिल्मों में काम किया और 1950 के दशक के अंत से 1990 के दशक की शुरुआत तक मन्ना डे को बंगाली और मलयालम फिल्मों में भी गवाया। यूं तो वो शंकर-जयकिशन और निर्माता राज कपूर के साथ फिल्म आवारा में काम कर चुके थे, लेकिन उनका ये संयोजन 1954 में फिल्म बूट पॉलिश के संगीत के लिए काफी चर्चा में आया ,इसके बाद उन्होंने 1954 से 1971 तक कई फिल्मों में एक साथ काम किया, और तारीफ बटोरी , फिल्में रहीं ,किस्मत का खेल, श्री 420 , चोरी चोरी , मेरा नाम जोकर , आवारा , और कल आज और कल । उन्होंने राज कपूर के लिए परवरिश, श्रीमान सत्यवादी ,दिल ही तो है (रोशन के संगीत निर्देशन में ) और अब्दुल्लाह में (आरडी बर्मन के संगीत निर्देशन ) में भी गाने गाए। राज कपूर-मन्ना डे के संयोजन ने सुपरहिट फिल्में दीं एकमात्र अपवाद मेरा नाम जोकर है जहां गाने चार्टबस्टर थे लेकिन फिल्म फ्लॉप थी ।ये एक जोड़ी थी। जहां मुकेश ने राज कपूर के लिए धीमी गति के गीत गाए, वहीं मन्ना डे ने तेज़ गति वाले, शास्त्रीय गाने, रोमांटिक युगल गीतों को मिलाकर ,अंदाज़न मन्ना डे ने राज कपूर के 95% से अधिक सुपरहिट युगल और शरारती गीत गाए । फिर क्या था उनकी दिलकश आवाज़ में ऐसे ही सुरीले गीतों का कारवां चल निकला ।


मन्ना डे ही एक ऐसे शख्स थे जिनको पिता और पुत्र – यानी राज कपूर और रणधीर कपूर दोनों के लिए पार्श्वगायन करने का दुर्लभ गौरव प्राप्त है। पहले उन्होंने 1953 से 1955 तक तीन वर्षों में 83 हिंदी गाने गाए थे और उनकी मांग अचानक इतनी बढ़ गई कि वो हर साल 60 के ऊपर हिंदी गाने रिकॉर्ड करने लगे। हिंदी फिल्म उद्योग में उनका शिखर काल 1953 से 1969 तक माना जाता है, जहां उन्होंने 758 हिंदी गाने रिकॉर्ड किए और बड़े पैमाने पर काम किया , मोहम्मद रफी ने कहा था , आप लोग मेरे गीत को सुनते हैं लेकिन अगर मुझसे पूछा जाये तो मैं कहूँगा कि मैं मन्ना डे के गीतों को ही सुनता हूँ। मन्ना डे को कठिन गीत गाने का शौक था। उनके गाये गीत हर तबके में काफी लोकप्रिय हुए। “लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे?”, “पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी!”, “सुर ना सजे, क्या गाऊँ मैं?”, “जिन्दगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये हँसाये कभी ये रुलाये!”, “ये रात भीगी भीगी, ये मस्त नज़ारे!”, गीत लोगों की ज़बान पर आज भी चढ़े हुए हैं।

गायकी को लेकर मन्ना डे के मन में अपार श्रद्धा थी। किसी भी निर्माता को यदि अपनी फिल्म में शास्त्रीय गीत गवाना होता था तो वह सिर्फ मन्ना डे को ही साइन करता था। चलते चलते एक और वाक़िअ हम आपको बताते चलें कि 1968 में रिलीज हुई फिल्म पड़ोसन के एक गाने (“इक चतुर नार बड़ी होशियार”) की रिकॉर्डिग हो रही थी तो किशोर कुमार, जिन्हें सरगम बिलकुल नहीं आती थी और मन्ना डे, जो इसके मास्टर थे, के बीच इस बात को लेकर खींचतान हो गयी कि निर्माता ने कहा कि इसे वैसा ही गाना है जैसा गीतकार राजेन्द्र कृष्ण ने लिखा है। किशोर कुमार तो गाने के लिये तैयार हो गये परन्तु मन्ना डे ने गाने से मना कर दिया। वे अड़ गये और कहा “मैं ऐसा हरगिज़ नहीं करूँगा। मैं संगीत के साथ मज़ाक नहीं कर सकता।” खैर किसी तरह मन्ना की बात मान ली गयी और गीत की रिकॉर्डिग शुरू हुई। परन्तु उन्होंने सारा गाना शास्त्रीयता के साथ ही गाया। लेकिन जब किशोर कुमार ने थोड़े अटपटे बोलों में ग़लत अन्दाज़ वाला नोटेशन गाया, तो मन्ना चुप हो गये और कहा – “ये क्या है? ये कौन सा राग है?” इस पर हास्य अभिनेता महमूद ने उन्हें समझाया – “सर! सीन में कुछ ऐसा ही करना है, इसलिये किशोर दा ने ऐसे गाया।” मगर मन्ना दा इसके लिये तैयार नहीं हुए। किसी तरह उन्होंने अपने हिस्से का गीत पूरा किया लेकिन वह सब नहीं गाया जो उन्हें पसन्द नहीं था। महेन्द्र कपूर ने कहा था ” शास्त्रीय गायकी में उनका कोई सानी नहीं।”

पर ये सुरीला, दिल के तारों को झंकृत करता कारवां अचानक थम गया 24 अक्टूबर 2013 को हृदय गति रुकने से 94 वर्ष की आयु में ,नई सुरलहरियों को तलाशते हुए वो हमसे दूर चले गए। मन्ना डे की बंगाली भाषा की आत्मकथा, जिबोनेर जलसाघोरे , वर्ष 2005 में प्रकाशित की गई है, जिसका ,अंग्रेजी में मेमोरीज़ कम अलाइव , हिंदी में यादें जी उठी और मराठी में जीवनाचा जलसागरत के रूप में अनुवाद किया गया है । मन्ना डे संगीत अकादमी ,मन्ना डे पर एक संपूर्ण संग्रह विकसित कर रही है, ये सब हमारे लिए ,संगीत प्रेमियों के लिए एक अमूल्य धरोहर है,जो सदा उन्हें हमारे दिलों में जावेदा रखेगा।

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